सोमवार, 3 सितंबर 2007

पत्रकारिता एवं बिहार - एक विवेचन

"बुद्धिमान वैचारिक अभिव्यक्ति हेतु अपना मुह खोलते हैं जबकी मूर्ख सिर्फ इसलिए बोलते हैं क्योंकि कुछ बोलना है" - दर्शन शास्त्री प्लातो

अंग्रेजी पत्रकारों के लिए बिहार का स्थान किसी मुक्केबाज़ के लिए उसके पंचिंग बैग के समान ही है। जब भी किसी भी कारण से किसी दुष्कर्म की निंदा करनी हो, बिहार का नाम सहजता से ले लिया जाता है। अगर हाल की घटनाओं को लें तो भागलपुर के पुलिस काण्ड को घंटे में कम से कम आधा दर्जन बार दुहराया गया, और साथ में ऐसी ऐसी टिप्पणी की पूछिये मत। बिहार को ऐसी जगह बताया गया जहाँ सभ्यता समाप्त हो चुकी है, जो अंधकारमय भूमि है, जहाँ शासन का नामो निशान नहीं दीखता, और ना जाने क्या क्या। शायद ही किसी को याद हो कि मात्र तीन वर्ष पूर्व नागपुर में अक्कू यादव नाम के कथित अपराधी को वहां के न्यायालय के प्रांगण में ही एक गुस्साई भीड़ ने क़त्ल कर दिया था। तब ऐसी टिपण्णी ना महाराष्ट्र के बारे में की गयी, ना ही नागपुर के बारे में। टिपण्णीकारों ने तब अनेक कारण बताये थे कि क्यों भीड़ ऐसी बर्बरता से व्यवहार करती है। पर ऐसा कोई कारण भागलपुर कि घटना के बारे में तर्कसंगत नहीं लगा। बिहार के दोनो पुलिस कर्मियों को बर्खास्त कर दिया गया है जबकि दोनो पुलिस कर्मी जिन पर अक्कू के सुरक्षा कि जिम्मेदारी थी, उनपर किसी कार्यवाही कि जानकारी नहीं है। पर फिर भी बिहार सरकार को निठल्लू ही दर्शाया गया। पश्चिम बंगाल के सत्ता दल के एक भूतपूर्व विधायक ने खुलेआम एक महिला के ऊपर पेशाब कर दिया, वो भी एक मंत्री के उपस्थिति में। पर आप इस घटना के बारे में सुनेंगे भी नहीं। सांसद कटारा वाली घटना से बिहार का दूर दराज़ तक कुछ लेना देना नहीं है। परंतु अब बम्बई से छपने वाले इस अखबार को देख लीजिये, कटारा को बिहार के साथ जोड़ दिया। टी वी पत्रकारिता के चमकते सितारे श्री राजदीप सरदेसाई को महाराष्ट्र पर टिपण्णी करनी थी - उन्हें वहाँ का शासन पसंद नहीं आ रहा था। फिर क्या था, सहजता से कह दिया की महाराष्ट्र का बिहारीकरण हो रहा है। हम में से कुछ ने सोचा था कि लालू के बिहार में हारने के बाद शायद बिहार के अकारण निंदा में कुछ कमी आएगी। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। लालू तो एक बहाना मात्र थे बिहार की धुनाई करने के लिए।

सच्चाई तो यह है कि बिहार के अकारण निंदा की परम्परा बहुत पुरानी रही है। और यह सिर्फ अंग्रेजी पत्रकार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कई अन्य अंग्रेजी जानकार "एलीट" इसमें जम कर हिस्सा लेते हैं। आइये हम देखें की बिहार के इस छवि का इतिहास क्या है? भारत को सबसे ज्यादा प्राध्यापक, अभियंता, सरकारी अफसर देने वाले नालंदा, विक्रमशिला एवं ओदंतपुरी के इस भूमि के छवि की दुर्दशा कैसे हुई?

बिहार के खिल्ली उड़ाने की परम्परा के सबसे पहले उदहारण मिलते हैं बांगला भाषा की पत्रकारिता में जो आज़ादी के पहले से थी। मुझे याद है अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान एक बांगला भाषा का चलचित्र देखने का मौका मिला। नाम तो याद नहीं क्योंकी घटना के करीब पन्द्रह वर्ष बीत गए, परंतु इस श्वेत श्याम चलचित्र का मजमून याद है। इस फिल्म का मुख्य पात्र एक चोर है जो बिहारी तरीके से हिंदी बोलता है। धीरे धीरे वह महारिषी वाल्मीकि की तरह सुधरता jata है। जैसे जैसे वह सुधरता है, वैसे वैसे उसकी भाषा बांगला होते जाती है!आपमें से कुछ को चौरंगी पर बने चटर्जी इंटरनेशनल वाला लतीफा शायद पता हो। किस्सा यूं है कि बिहार से आया एक ग्रामीण इस बात की गिनती कर रह था कि वह अट्टालिका कितनी मंजिली है। तब तक एक सिपाही आया और पूछने लगा कि क्या करता है। ग्रामीण ने बताया, गिनती। सिपाही ने पुछा, कितने मंज़िल तक गिना? ग्रामीण ने कहा, अब तक बारह। सिपाही ने उससे पांच रुपये प्रति मंज़िल के हिसाब से साठ रुपये हड़प लिए। जब सिपाही चला गया तो हमारा ग्रामीण बोला, हम तो अठारह मंजिल तक गिने थे!!सच पूछिये तो बिहारी भी बंगालियों के डरपोंक मिजाज़ पर कई चुटकुले सुनाते थे। इस तरह के वाकयों को मज़ाक ही समझना चाहिऐ, या शायद दो भाईयों के बीच का आपस में टांग खीचना। आखिरकार बंगाल और बिहार दो पडोसी राज्य hain।
आज़ादी के बाद
आज़ादी के बाद कई बदलाव आये। एक बहुत बड़ा बदलाव था राज्यों के बीच केंद्र से साधन जुटाने की होढ। नव स्वतंत्र देश भारत एक गरीब देश था। साधन की कमी। सिर्फ पांच ही आई आई टी बन सकते थी। अगर भाखरा नांगल पर डैम बने तो बिहार में सिंचाई के लिए पैसा कम जाता। आदि आदि। ऐसी परिस्थिति में राज्य एक दुसरे को नीचा दिखने के होढ में लग गए। अपनी उँची करने के लिए राज्य सरकारें पत्रकारों को मोहने में लग गयी। दुर्भाग्यवश, बिहार के कर्ताधर्ता ऐसा कुछ करने पर ध्यान नहीं दिए। अतः बिहार की छवि धूमिल होने लगी।
साठ का दशक
साठ के दशक में राजनैतिक परिस्थिति काफी ढुलमुल थी। कांग्रेस को एक के बाद एक राज्यों में अपना स्थान कमजोर पड़ते दीख रहा था। बिहार में सोसलिस्टों का दबदबा था जिससे कांग्रेस खास घबराती थी। नहीं चाहती थी कि उनका प्रचार और प्रसार बढ़े। अतः बिहार के बौद्धिक वर्ग को बदनाम करना एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया। विद्यार्थी आंदोलन के कारण विश्वविद्यालयों कि परीक्षाएं समय पर नहीं हो पायी। इस बात को ख़ूब उछाला गया। महामाया प्रसाद सिन्हा बिहार में संयुक्त विधायक दल के मुखिया के तौर पर मुख्यमंत्री बने। उनको बहुत ही नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया। अब महामाया बाबु की नीतियों की जो भी खामियां रही हों, उसकी निंदा छोड पत्रकार बिहार पर ही तुल गए। किसी देश के पत्रकारों द्वारा अपने ही देश के किसी भाग के निवासियों की ऐसी निंदा का यह पहला मिसाल होगा। मैं इसे पहला इस लिए बोल रह हूँ क्योंकि जो इसके बाद हुआ वो बद से बदतर होता गया।
सत्तर का दशक
इस दशक के प्रारम्भ में श्रीमती इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान से युद्घ में भारी विजय पायी। इस विजय के उपलक्ष्य में जनता ने भारी मतों से कांग्रेस को जिताया। बिहार में भी कांग्रेस कि जीत हुई। नतीजतन सरकारी पिट्ठू पत्रकार लोग बिहार पर थोड़े मेहरबान हुए। परंतु ये विराम बडे ही अल्प समय के लिए था। कुछ ही दिन बाद छात्रों द्वारा आन्दोलन छिड़ गया। कांग्रेसी नेता जो जन नेता कम और दिल्ली दरबार के कारिन्दे ज्यादा थे, इस आन्दोलन को सम्हालने में बिल्कुल नाकाम रहे। जैसे जैसे ये प्रतीत होने लगा कि बिहार में कांग्रेस कि परिस्थिति नाजुक से ज्यादा नाजुक होते जा रही है, पत्रकार बिहार की भूमि की मिटटी पलीद करने में लग गए। इस में इल्लुस्त्रतेद वीकली के श्री एम् वी कामथ का घटियापन विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने यहाँ तक लिख दिया ही बिहारी बिहार पर राज्य करने योग्य ही नहीं हैं। शायद ऐसा करने से उन्हें उनके आकाओं ने उन्हें विशेष पुरुस्कारों से नवासा होगा, पता नहीं। हाँ ये जरूर है कि ऐसी घटिया निबंध लिखने के बाद भी किसी पत्रकार ने जो बिहार का ना हो, उनकी भर्त्सना नहीं की। थक हार कर ये काम बिहार के विधान सभा के अध्यक्ष को ये काम करना पड़ा। अब चुकिं वो अंग्रेजी भाषा के विशेष जानकार नहीं थे, उनका लेखन तर्क में तो बहुत अच्छा था पर भाषा से कमजोर था। इस शक्तिशाली सम्पादक ने उस पत्र को लेकर भी बिहार की खिल्ली उड़ाई।


ऐसी आशा थी कि एक बार जनता पार्टी सत्ता में आ जाये तो शायद बिहार को पत्रकार कुछ बेहतर ढंग से देखेंगे, पर ऐसी आशा गलत साबित हुई। मोरारजी देसाई एक अजीब सी कुंठा से ग्रस्त थे, उन्हें तो अपने अधिकार जताने में ज्यादा रूचि थी। मुझे अब भी याद है जब डाल्टनगंज की एक जन सभा में उन्होने कह दिया की जयप्रकाश सरकार नहीं हैं मानो जयप्रकाश शासन के क्रिया कलाप में हस्तक्षेप कर रहे थे!
इसी दौरान भागलपुर के आंखफोड्वा काण्ड की घटना को इंडियन एक्सप्रेस ने उजागर किया। फिर क्या था, 'राष्ट्रीय' मिडिया को बिहार के नाम को नेस्तनाबूद करने का नया अस्त्र मिल गया। एक भी 'राष्ट्रीय' स्तर के अखबार या पत्रिका ने दुसरे पक्ष को रखने कि कोशिश नहीं की। बिहार को नीचा दिखाने की जल्दी में किसी ने भी ये समझने कि कोशिश नहीं की कि अखिर क्या कारण था जो भागलपुर की स्थानीय जनता पुलिस के इतना साथ थी। किसी ने इस बात को समझने कि कोशिश नहीं की कि आख़िर क्या कारण था जो इतने लोग पुलिस के काम से खुश थे। इसे बिहारी चरित्र का हिंसा के प्रति सहज लगाव के रुप में दर्शाया गया। वो ही पत्रकार जिन्होंने पश्चिम बंगाल के नक्सल दमन में पुलिस के कार्य की प्रशंषा की थी या फिर बाद में पंजाब के खालिस्तान आंदोलन के दौरान पुलिस के कार्य को सराहा था, उन्हें भागलपुर पुलिस के काम में कुछ भी सही नहीं लगा। कहीँ किसी ने ये बताना उचित नहीं समझा कि कुछ लोग जिनकी आँखें फोडी गयी थी उन्होने tees से chaalis तक hatyaayen की थी। और चर्मरायी विधि व्यवस्था ऐसे दोषियों को सज़ा दिलाने में असमर्थ थी। ये तो दो दशक बाद प्रकाश झा के चल चित्र गंगाजल के मध्यम से लोगों को पता चला की सच्चाई क्या थी।
इसी दौरान बेल्ची हत्या काण्ड हो गया।श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इस घटना का बखूबी राजनैतिक लाभ उठाया। पत्रकार लोग इस घटना को बिहारियों के चरित्र की बुनियादी कमजोरी के तौर पर प्रस्तुत करते गए। ना कोई चिन्तन ना कोई वाद विवाद, सिर्फ बिहारियों को गाली। इसे समाज शास्त्रियों के सीमित बौद्धिक क्षमता माने या फिर पत्रकारों के बिहार दोष की इच्छा कि जाति से जुडे हिंसा को सिर्फ 'एम्पावर्मेंट' से जोड़ के देखा जाता है। किसी ने बढते हुए सामाजिक तनाव के अंदरूनी कारणों को समझने या सुधारने की कोशिश नहीं की। ये अधूरा विश्लेषण तब से आज तक ना जाने कितने बेल्ची का कारण बन चूका है, किन्तु किसे परवाह है?

अस्सी के दशक में बिहार का चित्रण

अस्सी के दशक में बिहार के प्रत्येक दोष का कारण जातिवाद और भूमि सुधार कि कमी बतायी गयी। किसी ने ये बताना जरूरी नहीं समझा कि कृषि में निवेश ना के बराबर हो रहा है। सिंचाई व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं है। प्रत्येक पंच वर्षिय योजना में बिहार का प्रति व्यक्ति हिस्सा सबसे कम है। किसी ने ये प्रश्न पूछना जरूरी नहीं समझा की जब पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के हिमालय अंचल (अब उत्तराखंड) जहाँ भूमि सीमा (सिलिंग) है ही नहीं इतना कृषि विकास हो सकता है, तो बिहार में सिलिंग कृषि विकास के लिए अनिवार्य क्यों है? बाढ़ एवं बर्बादी से बिहार को जोड़ा जाता रहा पर कभी किसी ने केंद्रीय जल आयोग कि तरफ ऊँगली उठाने कि कोशिश नहीं की जिनकी योजनायें बिहार के बिल्कुल प्रतिकूल थी। ना कभी किसी ने विदेश मंत्रालय से ये जवाब माँगा की उन्होने नेपाल के साथ बाढ़ की समस्या को लेकर कोई बात क्यों नहीं की।

सत्तर के मध्य में बिहार सरकार ने गंगा पर पुल बांधने का प्रस्ताव रखा। केंद्रीय योजना आयोग ने इसे यह कह कर मना कर दिया कि इसका कोई आर्थिक औचित्य नहीं है। बिहार सरकार ने अपने सीमित साधनों से इस पुल का निर्माण करवाया। मात्र छः वर्षों में इस पुल पर किया गया निवेश वापस आ गया जबकि इस प्रकार के निवेश कि औसत मियाद बीस से पचीस वर्ष होती है। परंतु इस बात पर कोई बहस आज तक मैंने नहीं सुनी है।

जगजीवन बाबु के पुत्र से लेकर राम लखन यादव के पुत्र और हाल में लालू यादव के परिवार की मिसाल देकर हमेशा ये आलोचना होती रही है की बिहार पारिवारिक राजनीती का गढ़ है। परंतु कोई ये नहीं बताता की बिहार के मुख्य मंत्री रह चुके कृष्ण वल्लभ सहाय के पुत्र नील कंठ प्रसाद वो पुरुष थे जिन्होंने कभी भी अपने पिता का नाम निजी स्वार्थ कि लिए नहीं लिया. ये वो महान अभियंता थे जिन्होंने अत्यन्त विकट प्ररिस्थिति में बहुत ही कम साधन के बावजूद गंगा पर पुल का काम पुरा करवाया। किसी 'राष्ट्रीय' मिडिया में इस महान पुरुष का नाम भी नहीं आता है।



नब्बे का दशक

नब्बे के दशक में पत्रिकाओं एवं इलेक्ट्रानिक मिडिया का वर्चस्व बढ़ा। बोरीबन्दर की बुढिया एवं चेन्नई की अनब्याही अधेढ़ (वर्जिन स्पिन्स्टर) का महत्व कुछ कम हुआ। ये समय बिहार के लिए थोडा अच्छा समय था। नए मिडिया मुग़ल नयी राह बनाना चाहते थे। पर ये सब बहुत कम अर्से तक रहा. बहुत जल्द इनको भी बिहार को बदनाम कर पैसे कमाने की तरकीब आ गयी। अब तीन चीजों से बिहार का नाम जोड़ा गया - राजनीति में गुंडागर्दी, जातिवाद और भूमि सुधार की
कमी। किसी घिसे पिटे रेकार्ड कि तरह जब भी मिडिया को बिहार का नाम लेना होता, इन्ही की बात होती। परिस्थिति ऐसी हो गयी की बिहार से जुडे समाचार को पढने कि भी जरूरत नहीं थी - क्योंकि जिक्र सिर्फ इनका ही होता। कितने ही पत्रकारों के करीएर बिहार के खंडहर पर बनाए गए, इसकी गिनती मुश्किल है।

इसी दौरान पत्रकारों को बिहारियों के कम्पेटीटीव परीक्षाओं में सफलता का पता चला। बस विद्वेष ने बिहार के शिक्षा प्रणाली कि छवि को भी धूमिल करने कि ठान ली। इस का बिहार के युवा वर्ग के भविष्य पर कितना गलत असर हुआ है, उसका अंदाज़ा लगाना भी कठिन है। इस बार के सिविल सर्विस परीक्षा में सफल पुलिस अफसर का साक्षात्कार शायद आपने पढा हो जो कि एक पुलिस जमादार के लड़के थे। जब वो दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन हेतु गए तो उन्हें बार बार किसी ना किसी बहाने वापस भेज दिया जाता क्यूंकि उनके महाविद्यालय को शक हो गया था कि उनकी मार्क शीट गलत है। ये महाशय तो लगन के धनी थे और अपना कार्य किसी ना किसी तरह करवा पाए, चाहे उसके लिए कई बार पटना जाना पड़ा। पर कई इसे बदनसीब होंगे जो इस मार को नहीं सह पाते होंगे और जिंदगी कि दौड़ में पीछे रह जाते होंगे।

यही वो समय था जब पत्रकारों ने लालू एवं उसके गवारपन को खोज निकाला और उसके पास बिहार कि छवि को धूमिल करने का एक और हथकंडा आ गया। ज्ञात हो की लालू को मात्र एक चरित्र के रुप में लाया गया - मुद्दे वही तीन चार रहे जो मैंने पहले बताया है। लालू अपने मतदाताओं के लिए क्या हैं, इस से किसी को कोई मतलब नहीं था। अब पत्रकार दो दल में बट गए - एक वो जो लालू को चाहते थे और दुसरे वो जो उसे नापसंद करते थे। जो लालू को चाहते थे वो ये कहते कि देखो लालू ने क्या पाया था - ऐसा बिहार जो बिल्कुल टूटा फूटा था, वो बेचारा क्या कर सकता था? जो लालू को नहीं चाहते थे वो कहते कि देखो लालू ने बिहार का क्या कर डाला। पत्रकार चाहे किसी दल के हों, बिहार हमेशा एक नरक के रुप में ही प्रस्तुत किया जाता।

और इस तरह हम ईकीस्वी सदी में पहुंच गए जब बिहार के दो हिस्से कर दिए गए। ये अगर एक मजाक होता तो हम भी हंस लेते, पर ये तो सवाल बिहार के तमाम युवा पीढी के भविष्य का है जो आने वाले दिनों में अपने जीविकार्जन हेतु नौकरी या फिर धंधा खोजेंगे।

आज के बिहार विद्वेशक

आज के इस मिडिया युग में छवि का यथार्थ से भी अधिक महत्व है। इस युग में हम छवि के प्रति उदासीन हो कर नहीं जी सकते। आज के इस माहौल में बिहार एवं बिहारिओं को उनकी उचित छवि हेतु मैं आधुनिक बिहार विध्वंशकों का समीक्षण करना का प्रयत्न करूंगा। आधुनिक मिडिया मुख्यतया टी वी ही है। समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं की महत्ता गौण हो चली है। उनके पास विसुअल अपील भी है जो बड़ा ही शक्तिशाली है। साथ ही ये टी वी चैनल ही हैं जिनके पास विज्ञापन का बहुत बड़ा हिस्सा है। उनके पास जितना धन है, वो अखबार आदि कभी सोच भी नहीं सकते। चुकी टी वी पर तत्काल समाचार देना होता है, अतः शोध करने के लिए वक्त बहुत कम होता है। इस लिए कई बार गलत समाचार भी प्रसारित हो जाते हैं, अधिकांश गलती से और कभी कभी नज़र फेर के।


आज नालंदा, विक्रमशिला और ओदंतपुरी के क्षेत्र में एक भी केंद्रीय विश्वविद्यालय, आई आई टी, आई आई एम्, या ए आई आई एम् एस नहीं है। ना ही कोई सी एस आई आर या डी आर डी यो कि प्रयोगशाला है। जब बिहार को साठ वर्षों की प्रतीक्षा के बाद एक आई आई टी मिली तो हमारे 'राष्ट्रीय' मिडिया की क्या प्रतिक्रिया हुई, इसे आप खुद पढ़ लें। अब इन vidwaan से कौन पूछे कि किसने कहा कि एक आई आई टी से पुरे बिहार कि समस्या दूर हो जायेगी? या अन्य जगहों यथा चेन्नई या मुम्बई कि सारी समस्या अगर दूर नहीं हो पायी तो फिर क्या वहां की आई आई टी को आग लगा दें? परंतु हमारे 'राष्ट्रीय' मिडिया को इनसे क्या लेना देना।

कुछ लोग ये आशा करते हैं कि यह निंदा बिहार के तरक्की में शायद कुछ योगदान करेगी, पर ये एक दुराषा से अधिक कुछ नहीं है। निंदा तब कुछ काम की होती है जब उसके पीछे की सोच सही हो। परंतु यदि निंदा का उद्देश्य सिर्फ टांग खिचना एवं मनोबल गिराना हो तो उसका परिणाम कभी मंगलमय नहीं हो सकता है।

3 टिप्‍पणियां:

Ashish Mishra ने कहा…

TVS Sir, Great Analysis! This is for the first time I have read the clear analysis of media role in potraying bihar in post -independence period.
Kudos to you for such a wonderful write-up.

Ranjan ने कहा…

TO continue you and agree with you , I find major error from our men in MEDIA ! The heights they achieved in very short span due this hype of electronic Media , they have started cliaming themselves above thier roots !

Recently , I find a TV Reporter brushing and getting publicity using BIHARI as centre and backward character in his series of stories !

They don't deserve to be Journalist but they are ! If Aroon Purie of Living Media can openly praise any Punjabi persons from Punjab , Then why not BIHARI Journalist can have some favour for BIHAR ,but they won't !

there are many root causes ! One must learn to LOVE his own people !

PD ने कहा…

Superb!!