मंगलवार, 8 मई 2007

कहानी पाठ्य पुस्तकों की

आज प्रत्येक वर्ष सिलेबस बदल जता है। चाहे आप के बच्चे राज्य स्तर के बोर्ड वाले विद्यालय में पढ़ रहे हों या राष्ट्रीय स्तर के बोर्ड वाले विद्यालय में, पाठ्य क्रम बदलने की एक परम्परा सी चल पडी है। इस का एक परिणाम यह हुआ है कि पाठ्य पुस्तकें भी बदल जाती हैं। आप के दो बच्चों के उमर में अगर दो वर्षों का भी फासला हो तब भी आप को उनके लिए नयी पुस्तकें खरीदनी पड़ती हैं। आज से कुछ ही साल पहले ऐसा नहीं था। एक बार घर पर पाठ्य पुस्तक आ गयी तो पुश्त दर पुश्त परिवार पढ़ जाते थे। भाई बहन तो क्या भतीजे भतीजी भी अपने चाचा बुआ के लिए खरीदी गयी किताब पढ़ कर कितनी ही परीक्षा पास हो गए।

इनमे कुछ किताबें ऐसी थीं जिनको गीता, कुरान या बाईबल का दर्ज़ा हासिल था। इन किताबों को खरीदने के बाद सबसे पहले कूट में मढ़वाया जाता था। फिर बढ़िया भूरा जिल्द लगा कर ही पढने वालों को दिया जाता था। शायद कुछ प्रकाशकों को भी इस बात का इल्म था, क्योंकि वो किताबें मढी मढ़ई आती थीं। आज के अपने लेख में मैं ऐसी ही कुछ भूली बिसरी किताबों का जिक्र करना चाहूँगा।

ऐसी सबसे पहली पुस्तक जो किसी बच्चे के हाथ में दी जाती थी, वह थी मनोहर पोथी। एक बड़ी अच्छी परम्परा थी बिहार में खल्ली छुआने की या संस्कृतनिष्ट हिंदी में कहें तो अक्षरारम्भ की। घर का कोई बड़ा बुजुर्ग यथा दादा दादी या बडे चाचा (बिहारी भाषा में बड़का बाबूजी) स्लेट पर नन्हे नन्हे उँगलियों से चाक द्वारा कुछ अक्षर लिखवा देते और पढ़ाई शुरू हो जाती। कई बार यह कार्य सामुहिक रुप से सरस्वती पूजा के दिन भी करवा दिया जाता था। ऐसे अवसर पर मनोहर पोथी का होना बिल्कुल अनिवार्य था। ना जाने कितने लाख लोग मनोहर पोथी पढ़ कर साक्षरता प्राप्त किये!

अगली ऐसी पुस्तक जो मुझे याद है, वह थी चक्रवर्ती की अंक गणित। मेंसुरेशन के कठिन से कठिन प्रश्न आप बिना ज्यामिति के ज्ञान के इस पुस्तक के पढ़ लेने से कर सकते थे। लाल मढी ये किताब आगरा के किसी प्रकाशक द्वारा प्रकाशित होती थी। फिर बंगाल के लेखक द्वारा लिखी उत्तर प्रदेश से प्रकाशित इस पुस्तक का प्रचलन बिहार में इतना क्यों था, यह मार्केटिंग के प्राध्यापकों के लिए शोध का विषय भी हो सकता है। पता नहीं मेरे जैसे कितने बालक अपनी गरमी की छुट्टियों में इस पुस्तक के चलते खेलने से वंचित रहे। गौर करें की ये पुस्तक हमारे सिलेबस से बाहर की थी। यानी इसे कितना भी पढ़ लो, परीक्षा में कोई फरक नहीं पड़ेगा। पर हमारी नियति में उसमे दिए गए प्रश्नों को हल करना लिखा था सो किया। ये भी सच है की इस किताब ने जितना भेजा चुस्त किया, यह उसी की देन है की बिना कोई विशेष प्रयत्न या अभ्यास के मैं मैनेजमेंट की प्रवेश परीक्षा में सफल हो पाया।
अगली कुछ पुस्तकों का विवरण जो मैं देने जा रहा हूँ, वो सब गणित से जुडे हुए हैं। कक्षा छः में प्रवेश किया नहीं की हॉल ऎंड नाईट की बीज गणित एवं हॉल ऎंड स्टीवेंस की ज्यामिति कि किताब आप को थमा दी जाती थी। जहाँ तक मुझे याद आता है, इन पुस्तकों का नया संस्करण शायद सन १९३५ के बाद नहीं आया था, सिर्फ साल दर साल इन पुस्तकों का प्रकाशन होता था। ऐसा प्रतीत होता था मानो १९३५ के बाद पाठन पर शोध बंद हो गया था। शायद यही कारण तो नहीं है की अब जब फिर से शोध हो रहा है तो हर साल पुस्तकें बदल दी जा रही हैं? इसी परम्परा की एक और किताब थी लोनी की त्रिकोणमिति जो हमें कक्षा आठ में दी गयी।

अच्छी बात थी की ये पुस्तक सिलेबस के भीतर की चीज़े ही पढाती थीं। या शायद सिलेबस इन पुस्तकों को देख कर ही बनाया गया था। इस लिए इनका परीक्षा में भी बड़ा फायदा होतो था। अगर आप इनको मन से पढ़ लें तो शायद ही किसी परीक्षा में आपको परेशानी हो। कुछ कुछ चीज़े जो शिक्षक नहीं पढा पाते, वो भी अगर आप ध्यान से पढ़ लेते तो आप को समझ में आ ही जता था। हाँ कुछ कुछ शिक्षक इन किताबों को गलत ढंग से पढ़ते थे। मसलन, थेओरेम को रट्टा लगाने के लिए बोलना। अब अगर किसी भोजपुरी, मैथिलि या मगही भाषी को अंग्रेजी में थेओरेम का रट्टा लगाने पर मजबूर किया जाये तो वह ज्यामिति क्या सीखेगा? बहरहाल, किस्मत से हमारे विद्यालय में कुछ बहुत ही अच्छे गणित के शिक्षक थे जो चाव से हमें इन थेओरेम के पीछे की लाजिक सिखलाते थे। इस लिए हमलोग तो बच गए। पर शायद कुछ विद्यालय ऐसे जरूर रहे होंगे जहाँ ऐसे अच्छे शिक्षक नहीं थे। वहाँ छात्र जरूर परेशान हुए होंगे।

अब आते हैं अंग्रेजी ग्रामर की किताब पर। नेस्फिल्ड के ग्रामर कि किताब एक ऐसी किताब थी जो कई सालों से छपी तक नहीं थी। नेस्फिल्ड के ग्रामर के किताब की शोहरत उस ज़माने के किसी सिने कलाकार से कम नहीं थी. घरों में इसे जिस तरह बचा कर रखा जाता था वह देखने योग्य था। चुंकि इसका प्रकाशन बंद हो चूका था, इसलिए आपको यह किताब किसी मित्र या रिश्तेदार के घर से ही मिल सकती थी। अब अगर ये ध्यान में रखें की अंग्रेजी कर्पूरी ठाकुर साहेब के ज़माने से अनिवार्य विषय नहीं था, तो वाक़ई समाज शास्त्री इस विषय पर शोध करने की सोच सकते हैं की पास विदाउट इंग्लिश के ज़माने में इस पुस्तक ने इतनी शोहरत कैसे पाई?

वैसे तो कई किताबें और भी हैं, पर आपको इन कुछ किताबों से बीते ज़माने की भूली किताबों की कहानी याद कराने की कोशिश की है। आज के बालक नित्य पुस्तक बदल देते हैं। शायद ही कोई पुस्तक ऐसी होगी जिनको इन पुरानी किताबों की भांति शोहरत हासिल हो।

2 टिप्‍पणियां:

Samir Kumar Mishra ने कहा…

TVSir aap to bachpan ka baat yaad dila diye humko. Jitna bhi aapne kitaab ka naam likha hai sab aankhon ke saamane aise hi aa gaya. Kitna mehnat karna para tha padhne ke liye sab book :)

Ranjan ने कहा…

Chakrawati ka MATHEMATICS ka BOOK , Babu jee ke muh se aksar suna karate the aur NESFIELD wala grammar ka book padh ke mere gaon ke chacha aaj bhi sirf ANGREZI me hi baat karate hain :)