शनिवार, 12 अप्रैल 2008

जाति पर बहस या बिहार को गाली?

एक कहावत बिहार में काफी प्रचलित है -

अगर समुद्र मथोगे तो अमृत मिलेगा पर अगर गूह मथोगे टू खाली बदबुये पाओगे।

ये जातिवाद के ऊपर का विवाद भी किसी गूह मथने से कम नहीं है। आज़ादी के साठ साल हो गए और हम इस जातिवाद की बहस से ऊपर उठने को तैयार नहीं हैं। जब भी बिहार के सन्दर्भ में कोई बहस हो रही हो जातिवाद का मुद्दा अनायास ही उठ जाता है।

par ऐसी बहस किस काम की जो कोई बदलाव ही नहीं ला सके। क्यों नहीं आर्थिक मुद्दों पर बहस हो? यथा फृत एकुँलिज़एशन (freight equalization) जिसने बिहार की आर्थिक कमर तोड़ दी? या फिर क्रेडिट डिपॉजिट रेशियो जिसके कारण देश के सबसे गरीब राज्य बिहार से पूंजी का पलायन हो रहा है। अगंरेजों के शाषण काल में भी ऐसा नहीं हुआ !
अगर बंगाल की तरफ़ देखें तो े वहां का एक भी मुख्य मंत्री वहां की तीन अगडी जाति ब्रह्मण बैद्य और बंगाली कायस्थ के बाहर का नहीं हुआ है। पर उसे क्यों नहीं जातिवादी कहते हैं?
सोचने और समझने की बातें हैं।

मंगलवार, 11 सितंबर 2007

एक भावुक राजनेता

आज भारत में राजनेताओं की कुछ ऐसी छवि बन गयी है कि हम उन्हे कुछ हेय दृष्टि से देखते हैं। बस सुन लिया कि फलाँ पालीटीसियन है तो हम कुछ ऐसा मान लेते हैं कि ईमानदारी, भावुकता या अन्य जो मानवीय गुण होते हैं, वो उनमें नहीं हो सकते। ऐसे में बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार की कुछ तस्वीरें दिखी, एक अलग ही कहानी कहती है।

नीतीश जी के सत्ता में आने के कुछ ही दिन बाद श्री नवीन कुमार सिन्हा, जो पटना पश्चिम से विधायक थे, उनका निधन हो गया। श्री सिन्हा नीतीश जी के मित्रों में से थे। सिन्हा जी के अंतिम संस्कार के जो फोटो आए, उनमें नीतीश जी के सजल नेत्र उनके अंदर छुपे दुख को साफ़ दर्शा रहे थे. कुछ दो एक महीने पहले, नीतीश जी के पत्नी का निधन हो गया. टी वी पर फूट फूट कर रोते हुए उनकी जो तस्वीर आई जिसमे उनकी वेदना को साफ़ देखा जा सकता था। दो तीन दिन पहले बिहार के शिक्षा सचिव का देहांत हो गया। नीतीश जी शिक्षा समबंधी सुधारों के लिए उनपर क़ाफ़ी निर्भर करते थे। नम आँखों वाली जो तस्वीरें प्रकाशित हुईं उन्हे देख कोई भी उनके दुख को अनुभव कर सकता है।

आज के महानगरों के माहौल में, जो भारत के गावों के परंपरा से बहुत दूर निकल चुकी है, उसमे इस तरह के भावुकता को हम शायद समझ नहीं पाएँ। पश्चात्य सभ्यता में तो एक मर्द की आखों में आँसू को कमज़ोरी की निशानी माना जाता है। परंतु एक स्व आश्वस्त पुरुष ही अपनी भावनाओं को इस सहजता के साथ व्यक्त कर सकता है, वह भी मीडिया के सामने। एक ऐसा व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है, जो कोमल हृदय व मानवता से ओतप्रोत हो, ये बड़े सौभाग्य कि बात है कि ऐसा भावुक व्यक्ति आज की राजनीति के जन्जाल में भी एक उच्च पद हासिल कर सकता है। मैं इससे अत्यंत आशावान हूँ। अगर ऐसे व्यक्ति उच्च पदों पर आसीन हों तो निश्चय ही देश का भला ही होगा।

सोमवार, 3 सितंबर 2007

पत्रकारिता एवं बिहार - एक विवेचन

"बुद्धिमान वैचारिक अभिव्यक्ति हेतु अपना मुह खोलते हैं जबकी मूर्ख सिर्फ इसलिए बोलते हैं क्योंकि कुछ बोलना है" - दर्शन शास्त्री प्लातो

अंग्रेजी पत्रकारों के लिए बिहार का स्थान किसी मुक्केबाज़ के लिए उसके पंचिंग बैग के समान ही है। जब भी किसी भी कारण से किसी दुष्कर्म की निंदा करनी हो, बिहार का नाम सहजता से ले लिया जाता है। अगर हाल की घटनाओं को लें तो भागलपुर के पुलिस काण्ड को घंटे में कम से कम आधा दर्जन बार दुहराया गया, और साथ में ऐसी ऐसी टिप्पणी की पूछिये मत। बिहार को ऐसी जगह बताया गया जहाँ सभ्यता समाप्त हो चुकी है, जो अंधकारमय भूमि है, जहाँ शासन का नामो निशान नहीं दीखता, और ना जाने क्या क्या। शायद ही किसी को याद हो कि मात्र तीन वर्ष पूर्व नागपुर में अक्कू यादव नाम के कथित अपराधी को वहां के न्यायालय के प्रांगण में ही एक गुस्साई भीड़ ने क़त्ल कर दिया था। तब ऐसी टिपण्णी ना महाराष्ट्र के बारे में की गयी, ना ही नागपुर के बारे में। टिपण्णीकारों ने तब अनेक कारण बताये थे कि क्यों भीड़ ऐसी बर्बरता से व्यवहार करती है। पर ऐसा कोई कारण भागलपुर कि घटना के बारे में तर्कसंगत नहीं लगा। बिहार के दोनो पुलिस कर्मियों को बर्खास्त कर दिया गया है जबकि दोनो पुलिस कर्मी जिन पर अक्कू के सुरक्षा कि जिम्मेदारी थी, उनपर किसी कार्यवाही कि जानकारी नहीं है। पर फिर भी बिहार सरकार को निठल्लू ही दर्शाया गया। पश्चिम बंगाल के सत्ता दल के एक भूतपूर्व विधायक ने खुलेआम एक महिला के ऊपर पेशाब कर दिया, वो भी एक मंत्री के उपस्थिति में। पर आप इस घटना के बारे में सुनेंगे भी नहीं। सांसद कटारा वाली घटना से बिहार का दूर दराज़ तक कुछ लेना देना नहीं है। परंतु अब बम्बई से छपने वाले इस अखबार को देख लीजिये, कटारा को बिहार के साथ जोड़ दिया। टी वी पत्रकारिता के चमकते सितारे श्री राजदीप सरदेसाई को महाराष्ट्र पर टिपण्णी करनी थी - उन्हें वहाँ का शासन पसंद नहीं आ रहा था। फिर क्या था, सहजता से कह दिया की महाराष्ट्र का बिहारीकरण हो रहा है। हम में से कुछ ने सोचा था कि लालू के बिहार में हारने के बाद शायद बिहार के अकारण निंदा में कुछ कमी आएगी। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। लालू तो एक बहाना मात्र थे बिहार की धुनाई करने के लिए।

सच्चाई तो यह है कि बिहार के अकारण निंदा की परम्परा बहुत पुरानी रही है। और यह सिर्फ अंग्रेजी पत्रकार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कई अन्य अंग्रेजी जानकार "एलीट" इसमें जम कर हिस्सा लेते हैं। आइये हम देखें की बिहार के इस छवि का इतिहास क्या है? भारत को सबसे ज्यादा प्राध्यापक, अभियंता, सरकारी अफसर देने वाले नालंदा, विक्रमशिला एवं ओदंतपुरी के इस भूमि के छवि की दुर्दशा कैसे हुई?

बिहार के खिल्ली उड़ाने की परम्परा के सबसे पहले उदहारण मिलते हैं बांगला भाषा की पत्रकारिता में जो आज़ादी के पहले से थी। मुझे याद है अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान एक बांगला भाषा का चलचित्र देखने का मौका मिला। नाम तो याद नहीं क्योंकी घटना के करीब पन्द्रह वर्ष बीत गए, परंतु इस श्वेत श्याम चलचित्र का मजमून याद है। इस फिल्म का मुख्य पात्र एक चोर है जो बिहारी तरीके से हिंदी बोलता है। धीरे धीरे वह महारिषी वाल्मीकि की तरह सुधरता jata है। जैसे जैसे वह सुधरता है, वैसे वैसे उसकी भाषा बांगला होते जाती है!आपमें से कुछ को चौरंगी पर बने चटर्जी इंटरनेशनल वाला लतीफा शायद पता हो। किस्सा यूं है कि बिहार से आया एक ग्रामीण इस बात की गिनती कर रह था कि वह अट्टालिका कितनी मंजिली है। तब तक एक सिपाही आया और पूछने लगा कि क्या करता है। ग्रामीण ने बताया, गिनती। सिपाही ने पुछा, कितने मंज़िल तक गिना? ग्रामीण ने कहा, अब तक बारह। सिपाही ने उससे पांच रुपये प्रति मंज़िल के हिसाब से साठ रुपये हड़प लिए। जब सिपाही चला गया तो हमारा ग्रामीण बोला, हम तो अठारह मंजिल तक गिने थे!!सच पूछिये तो बिहारी भी बंगालियों के डरपोंक मिजाज़ पर कई चुटकुले सुनाते थे। इस तरह के वाकयों को मज़ाक ही समझना चाहिऐ, या शायद दो भाईयों के बीच का आपस में टांग खीचना। आखिरकार बंगाल और बिहार दो पडोसी राज्य hain।
आज़ादी के बाद
आज़ादी के बाद कई बदलाव आये। एक बहुत बड़ा बदलाव था राज्यों के बीच केंद्र से साधन जुटाने की होढ। नव स्वतंत्र देश भारत एक गरीब देश था। साधन की कमी। सिर्फ पांच ही आई आई टी बन सकते थी। अगर भाखरा नांगल पर डैम बने तो बिहार में सिंचाई के लिए पैसा कम जाता। आदि आदि। ऐसी परिस्थिति में राज्य एक दुसरे को नीचा दिखने के होढ में लग गए। अपनी उँची करने के लिए राज्य सरकारें पत्रकारों को मोहने में लग गयी। दुर्भाग्यवश, बिहार के कर्ताधर्ता ऐसा कुछ करने पर ध्यान नहीं दिए। अतः बिहार की छवि धूमिल होने लगी।
साठ का दशक
साठ के दशक में राजनैतिक परिस्थिति काफी ढुलमुल थी। कांग्रेस को एक के बाद एक राज्यों में अपना स्थान कमजोर पड़ते दीख रहा था। बिहार में सोसलिस्टों का दबदबा था जिससे कांग्रेस खास घबराती थी। नहीं चाहती थी कि उनका प्रचार और प्रसार बढ़े। अतः बिहार के बौद्धिक वर्ग को बदनाम करना एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया। विद्यार्थी आंदोलन के कारण विश्वविद्यालयों कि परीक्षाएं समय पर नहीं हो पायी। इस बात को ख़ूब उछाला गया। महामाया प्रसाद सिन्हा बिहार में संयुक्त विधायक दल के मुखिया के तौर पर मुख्यमंत्री बने। उनको बहुत ही नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया। अब महामाया बाबु की नीतियों की जो भी खामियां रही हों, उसकी निंदा छोड पत्रकार बिहार पर ही तुल गए। किसी देश के पत्रकारों द्वारा अपने ही देश के किसी भाग के निवासियों की ऐसी निंदा का यह पहला मिसाल होगा। मैं इसे पहला इस लिए बोल रह हूँ क्योंकि जो इसके बाद हुआ वो बद से बदतर होता गया।
सत्तर का दशक
इस दशक के प्रारम्भ में श्रीमती इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान से युद्घ में भारी विजय पायी। इस विजय के उपलक्ष्य में जनता ने भारी मतों से कांग्रेस को जिताया। बिहार में भी कांग्रेस कि जीत हुई। नतीजतन सरकारी पिट्ठू पत्रकार लोग बिहार पर थोड़े मेहरबान हुए। परंतु ये विराम बडे ही अल्प समय के लिए था। कुछ ही दिन बाद छात्रों द्वारा आन्दोलन छिड़ गया। कांग्रेसी नेता जो जन नेता कम और दिल्ली दरबार के कारिन्दे ज्यादा थे, इस आन्दोलन को सम्हालने में बिल्कुल नाकाम रहे। जैसे जैसे ये प्रतीत होने लगा कि बिहार में कांग्रेस कि परिस्थिति नाजुक से ज्यादा नाजुक होते जा रही है, पत्रकार बिहार की भूमि की मिटटी पलीद करने में लग गए। इस में इल्लुस्त्रतेद वीकली के श्री एम् वी कामथ का घटियापन विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने यहाँ तक लिख दिया ही बिहारी बिहार पर राज्य करने योग्य ही नहीं हैं। शायद ऐसा करने से उन्हें उनके आकाओं ने उन्हें विशेष पुरुस्कारों से नवासा होगा, पता नहीं। हाँ ये जरूर है कि ऐसी घटिया निबंध लिखने के बाद भी किसी पत्रकार ने जो बिहार का ना हो, उनकी भर्त्सना नहीं की। थक हार कर ये काम बिहार के विधान सभा के अध्यक्ष को ये काम करना पड़ा। अब चुकिं वो अंग्रेजी भाषा के विशेष जानकार नहीं थे, उनका लेखन तर्क में तो बहुत अच्छा था पर भाषा से कमजोर था। इस शक्तिशाली सम्पादक ने उस पत्र को लेकर भी बिहार की खिल्ली उड़ाई।


ऐसी आशा थी कि एक बार जनता पार्टी सत्ता में आ जाये तो शायद बिहार को पत्रकार कुछ बेहतर ढंग से देखेंगे, पर ऐसी आशा गलत साबित हुई। मोरारजी देसाई एक अजीब सी कुंठा से ग्रस्त थे, उन्हें तो अपने अधिकार जताने में ज्यादा रूचि थी। मुझे अब भी याद है जब डाल्टनगंज की एक जन सभा में उन्होने कह दिया की जयप्रकाश सरकार नहीं हैं मानो जयप्रकाश शासन के क्रिया कलाप में हस्तक्षेप कर रहे थे!
इसी दौरान भागलपुर के आंखफोड्वा काण्ड की घटना को इंडियन एक्सप्रेस ने उजागर किया। फिर क्या था, 'राष्ट्रीय' मिडिया को बिहार के नाम को नेस्तनाबूद करने का नया अस्त्र मिल गया। एक भी 'राष्ट्रीय' स्तर के अखबार या पत्रिका ने दुसरे पक्ष को रखने कि कोशिश नहीं की। बिहार को नीचा दिखाने की जल्दी में किसी ने भी ये समझने कि कोशिश नहीं की कि अखिर क्या कारण था जो भागलपुर की स्थानीय जनता पुलिस के इतना साथ थी। किसी ने इस बात को समझने कि कोशिश नहीं की कि आख़िर क्या कारण था जो इतने लोग पुलिस के काम से खुश थे। इसे बिहारी चरित्र का हिंसा के प्रति सहज लगाव के रुप में दर्शाया गया। वो ही पत्रकार जिन्होंने पश्चिम बंगाल के नक्सल दमन में पुलिस के कार्य की प्रशंषा की थी या फिर बाद में पंजाब के खालिस्तान आंदोलन के दौरान पुलिस के कार्य को सराहा था, उन्हें भागलपुर पुलिस के काम में कुछ भी सही नहीं लगा। कहीँ किसी ने ये बताना उचित नहीं समझा कि कुछ लोग जिनकी आँखें फोडी गयी थी उन्होने tees से chaalis तक hatyaayen की थी। और चर्मरायी विधि व्यवस्था ऐसे दोषियों को सज़ा दिलाने में असमर्थ थी। ये तो दो दशक बाद प्रकाश झा के चल चित्र गंगाजल के मध्यम से लोगों को पता चला की सच्चाई क्या थी।
इसी दौरान बेल्ची हत्या काण्ड हो गया।श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इस घटना का बखूबी राजनैतिक लाभ उठाया। पत्रकार लोग इस घटना को बिहारियों के चरित्र की बुनियादी कमजोरी के तौर पर प्रस्तुत करते गए। ना कोई चिन्तन ना कोई वाद विवाद, सिर्फ बिहारियों को गाली। इसे समाज शास्त्रियों के सीमित बौद्धिक क्षमता माने या फिर पत्रकारों के बिहार दोष की इच्छा कि जाति से जुडे हिंसा को सिर्फ 'एम्पावर्मेंट' से जोड़ के देखा जाता है। किसी ने बढते हुए सामाजिक तनाव के अंदरूनी कारणों को समझने या सुधारने की कोशिश नहीं की। ये अधूरा विश्लेषण तब से आज तक ना जाने कितने बेल्ची का कारण बन चूका है, किन्तु किसे परवाह है?

अस्सी के दशक में बिहार का चित्रण

अस्सी के दशक में बिहार के प्रत्येक दोष का कारण जातिवाद और भूमि सुधार कि कमी बतायी गयी। किसी ने ये बताना जरूरी नहीं समझा कि कृषि में निवेश ना के बराबर हो रहा है। सिंचाई व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं है। प्रत्येक पंच वर्षिय योजना में बिहार का प्रति व्यक्ति हिस्सा सबसे कम है। किसी ने ये प्रश्न पूछना जरूरी नहीं समझा की जब पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के हिमालय अंचल (अब उत्तराखंड) जहाँ भूमि सीमा (सिलिंग) है ही नहीं इतना कृषि विकास हो सकता है, तो बिहार में सिलिंग कृषि विकास के लिए अनिवार्य क्यों है? बाढ़ एवं बर्बादी से बिहार को जोड़ा जाता रहा पर कभी किसी ने केंद्रीय जल आयोग कि तरफ ऊँगली उठाने कि कोशिश नहीं की जिनकी योजनायें बिहार के बिल्कुल प्रतिकूल थी। ना कभी किसी ने विदेश मंत्रालय से ये जवाब माँगा की उन्होने नेपाल के साथ बाढ़ की समस्या को लेकर कोई बात क्यों नहीं की।

सत्तर के मध्य में बिहार सरकार ने गंगा पर पुल बांधने का प्रस्ताव रखा। केंद्रीय योजना आयोग ने इसे यह कह कर मना कर दिया कि इसका कोई आर्थिक औचित्य नहीं है। बिहार सरकार ने अपने सीमित साधनों से इस पुल का निर्माण करवाया। मात्र छः वर्षों में इस पुल पर किया गया निवेश वापस आ गया जबकि इस प्रकार के निवेश कि औसत मियाद बीस से पचीस वर्ष होती है। परंतु इस बात पर कोई बहस आज तक मैंने नहीं सुनी है।

जगजीवन बाबु के पुत्र से लेकर राम लखन यादव के पुत्र और हाल में लालू यादव के परिवार की मिसाल देकर हमेशा ये आलोचना होती रही है की बिहार पारिवारिक राजनीती का गढ़ है। परंतु कोई ये नहीं बताता की बिहार के मुख्य मंत्री रह चुके कृष्ण वल्लभ सहाय के पुत्र नील कंठ प्रसाद वो पुरुष थे जिन्होंने कभी भी अपने पिता का नाम निजी स्वार्थ कि लिए नहीं लिया. ये वो महान अभियंता थे जिन्होंने अत्यन्त विकट प्ररिस्थिति में बहुत ही कम साधन के बावजूद गंगा पर पुल का काम पुरा करवाया। किसी 'राष्ट्रीय' मिडिया में इस महान पुरुष का नाम भी नहीं आता है।



नब्बे का दशक

नब्बे के दशक में पत्रिकाओं एवं इलेक्ट्रानिक मिडिया का वर्चस्व बढ़ा। बोरीबन्दर की बुढिया एवं चेन्नई की अनब्याही अधेढ़ (वर्जिन स्पिन्स्टर) का महत्व कुछ कम हुआ। ये समय बिहार के लिए थोडा अच्छा समय था। नए मिडिया मुग़ल नयी राह बनाना चाहते थे। पर ये सब बहुत कम अर्से तक रहा. बहुत जल्द इनको भी बिहार को बदनाम कर पैसे कमाने की तरकीब आ गयी। अब तीन चीजों से बिहार का नाम जोड़ा गया - राजनीति में गुंडागर्दी, जातिवाद और भूमि सुधार की
कमी। किसी घिसे पिटे रेकार्ड कि तरह जब भी मिडिया को बिहार का नाम लेना होता, इन्ही की बात होती। परिस्थिति ऐसी हो गयी की बिहार से जुडे समाचार को पढने कि भी जरूरत नहीं थी - क्योंकि जिक्र सिर्फ इनका ही होता। कितने ही पत्रकारों के करीएर बिहार के खंडहर पर बनाए गए, इसकी गिनती मुश्किल है।

इसी दौरान पत्रकारों को बिहारियों के कम्पेटीटीव परीक्षाओं में सफलता का पता चला। बस विद्वेष ने बिहार के शिक्षा प्रणाली कि छवि को भी धूमिल करने कि ठान ली। इस का बिहार के युवा वर्ग के भविष्य पर कितना गलत असर हुआ है, उसका अंदाज़ा लगाना भी कठिन है। इस बार के सिविल सर्विस परीक्षा में सफल पुलिस अफसर का साक्षात्कार शायद आपने पढा हो जो कि एक पुलिस जमादार के लड़के थे। जब वो दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन हेतु गए तो उन्हें बार बार किसी ना किसी बहाने वापस भेज दिया जाता क्यूंकि उनके महाविद्यालय को शक हो गया था कि उनकी मार्क शीट गलत है। ये महाशय तो लगन के धनी थे और अपना कार्य किसी ना किसी तरह करवा पाए, चाहे उसके लिए कई बार पटना जाना पड़ा। पर कई इसे बदनसीब होंगे जो इस मार को नहीं सह पाते होंगे और जिंदगी कि दौड़ में पीछे रह जाते होंगे।

यही वो समय था जब पत्रकारों ने लालू एवं उसके गवारपन को खोज निकाला और उसके पास बिहार कि छवि को धूमिल करने का एक और हथकंडा आ गया। ज्ञात हो की लालू को मात्र एक चरित्र के रुप में लाया गया - मुद्दे वही तीन चार रहे जो मैंने पहले बताया है। लालू अपने मतदाताओं के लिए क्या हैं, इस से किसी को कोई मतलब नहीं था। अब पत्रकार दो दल में बट गए - एक वो जो लालू को चाहते थे और दुसरे वो जो उसे नापसंद करते थे। जो लालू को चाहते थे वो ये कहते कि देखो लालू ने क्या पाया था - ऐसा बिहार जो बिल्कुल टूटा फूटा था, वो बेचारा क्या कर सकता था? जो लालू को नहीं चाहते थे वो कहते कि देखो लालू ने बिहार का क्या कर डाला। पत्रकार चाहे किसी दल के हों, बिहार हमेशा एक नरक के रुप में ही प्रस्तुत किया जाता।

और इस तरह हम ईकीस्वी सदी में पहुंच गए जब बिहार के दो हिस्से कर दिए गए। ये अगर एक मजाक होता तो हम भी हंस लेते, पर ये तो सवाल बिहार के तमाम युवा पीढी के भविष्य का है जो आने वाले दिनों में अपने जीविकार्जन हेतु नौकरी या फिर धंधा खोजेंगे।

आज के बिहार विद्वेशक

आज के इस मिडिया युग में छवि का यथार्थ से भी अधिक महत्व है। इस युग में हम छवि के प्रति उदासीन हो कर नहीं जी सकते। आज के इस माहौल में बिहार एवं बिहारिओं को उनकी उचित छवि हेतु मैं आधुनिक बिहार विध्वंशकों का समीक्षण करना का प्रयत्न करूंगा। आधुनिक मिडिया मुख्यतया टी वी ही है। समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं की महत्ता गौण हो चली है। उनके पास विसुअल अपील भी है जो बड़ा ही शक्तिशाली है। साथ ही ये टी वी चैनल ही हैं जिनके पास विज्ञापन का बहुत बड़ा हिस्सा है। उनके पास जितना धन है, वो अखबार आदि कभी सोच भी नहीं सकते। चुकी टी वी पर तत्काल समाचार देना होता है, अतः शोध करने के लिए वक्त बहुत कम होता है। इस लिए कई बार गलत समाचार भी प्रसारित हो जाते हैं, अधिकांश गलती से और कभी कभी नज़र फेर के।


आज नालंदा, विक्रमशिला और ओदंतपुरी के क्षेत्र में एक भी केंद्रीय विश्वविद्यालय, आई आई टी, आई आई एम्, या ए आई आई एम् एस नहीं है। ना ही कोई सी एस आई आर या डी आर डी यो कि प्रयोगशाला है। जब बिहार को साठ वर्षों की प्रतीक्षा के बाद एक आई आई टी मिली तो हमारे 'राष्ट्रीय' मिडिया की क्या प्रतिक्रिया हुई, इसे आप खुद पढ़ लें। अब इन vidwaan से कौन पूछे कि किसने कहा कि एक आई आई टी से पुरे बिहार कि समस्या दूर हो जायेगी? या अन्य जगहों यथा चेन्नई या मुम्बई कि सारी समस्या अगर दूर नहीं हो पायी तो फिर क्या वहां की आई आई टी को आग लगा दें? परंतु हमारे 'राष्ट्रीय' मिडिया को इनसे क्या लेना देना।

कुछ लोग ये आशा करते हैं कि यह निंदा बिहार के तरक्की में शायद कुछ योगदान करेगी, पर ये एक दुराषा से अधिक कुछ नहीं है। निंदा तब कुछ काम की होती है जब उसके पीछे की सोच सही हो। परंतु यदि निंदा का उद्देश्य सिर्फ टांग खिचना एवं मनोबल गिराना हो तो उसका परिणाम कभी मंगलमय नहीं हो सकता है।

सोमवार, 4 जून 2007

एक सपने का अंत

पटना के गणितग्य श्री आनंद कुमार एवं पुलिस अफसर श्री अभयानंद ने एक सपना देखा था - गरीब तबके के बच्चों को आई आई टी कि प्रवेशिका परीक्षा में सफलता दिलाने का। बड़ी मेहनत और लगन से पिछले पांच वर्षों से उन्होने एक कोचिंग संस्थान चलाया - सुपर ३०। इस संस्थान में तीस बच्चों को आई आई टी परीक्षा में सफल होने की ट्रेनिंग दी जाती थी। ये विद्यार्थी गरीब एवं कमजोर तबके के होते थे जिनके लिए आम तौर पर आई आई टी में पढना एक सपना ही होता है। कोचिंग संस्थान के फ़ीस को तो छोड़ ही दीजिए, उनके लिए दोनो वक्त का खाना जुटाना भी मुश्किल होता है। ऐसे में तीस मेघावी बच्चों को ढूँढना, फिर उन्हें ना सिर्फ बिना फ़ीस के पढ़ाना बल्कि उनके खाने पीने का भी इंतजाम करना एक बड़ा ही नेक काम था। इसको ये दोनो मसीहा समान लोग पिछले पांच वर्षों से बखूबी निभा रहे थे। पिछले पांच वर्षों में इन्होने डेढ़ सौ बच्चों को विशेष प्रशिक्षण के लिए चुना। ये इनकी मेहनत एवं लगन का फल है की ऐसी परीक्षा जिसमे एक प्रतिशत से भी कम लोग सफल होते हैं, में इन १५० में से १२२ ने सफलता देखी। ये बडे दुःख की बात है कि कुछ कारणों से श्री कुमार एवं श्री अभयानंद ने अपने इस प्रतिष्ठान को बंद करने का निर्णय ले लिया है। हुआ कुछ यूँ की इस बार सुपर ३० के २८ विद्यार्थी आई आई टी में दाखिला लेने में सफल हुए। परंतु कुछ व्यवसाइक कोचिंग संस्थानों ने इन में से तीन लड़कों को अपना विद्यार्थी बता कर मुख्य मंत्री श्री नितीश कुमार के समक्ष पेश कर डाला। इस से इन दो लोगों को बहुत दुःख हुआ। उन्होने कहा की बहुत से लोग इन बच्चों की सफलता का श्रेय लेना चाहते हैं और लेते भी रहे हैं। परंतु जब बच्चे खुद ही यह कहें कि वे अन्यत्र पढे थे तो फिर हमारी सारी मेहनत बेकार है। आइडिलिज़्म विहीन हमारे आज के समाज में ऐसे विचार बेमानी लग सकते हैं। परंतु यदि श्री कुमार एवं श्री अभ्यानंद के नजरिये से देखें तो ये दोनो कोई पैसे लिए ये काम तो कर नहीं रहे थे। इसमे उनका कोई निजी लाभ तो था नहीं। तो फिर वो इस बेकार के झंझट में क्यों पड़ें? आज दुसरे कोचिंग संस्थान वालों ने मुख्य मंत्री से मिलने के लोभ में इन बच्चों को लुभा लिया। कल पैसे का लोभ दे कर कुछ गलत बात भी बुलवा सकते हैं। फिर अगर नैतिकता आपका संबल हैं तो किसी प्रकार का कोम्प्रोमाईज़ क्यों?

इस मामले में हमारे पत्रकारों का एवं सरकार का नज़रिया भी कुछ विचित्र है। अंग्रेजी के अखबार जिनकी बिहार के बारे में अनाप शनाप लिखने की आदत सी पड़ गयी है। वो पिछले कुछ दिनों से परेशान थे की वहाँ से कुछ निगेटिव समाचार क्यों नहीं आ रहा है, अब बडे ही खुश हैं। मिसाल के तौर पर ये पढिये। बिहार के बारे में समाचार हो तो जात पात क्यों ना लाया जाये? क्यों नहीं अफसरों की धज्जी उड़ाई जाये? क्या फरक पड़ता है यदि श्री आशीष रंजन सिन्हा का कोचिंग संस्थानों से कुछ लेना देना नहीं है? क्यों na यह कहा जाये कि श्री अभयानंद भूमिहार हैं? या फिर क्यों कहा जाये की ज़्यादातर विद्यार्थी श्री अभयानंद के जात के नहीं थे? या फिर अभ्यानंद और आनंद कुमार अलग अलग jaat के हैं। और दोनो ने एक दुसरे कि jaat देख कर साथ काम करने का फैसला नहीं किया था अपितु एक मकसद को ले कर दोनो साथ आये थे? शायद ऐसी उम्मीद इन समाचार पत्रों से बेकार ही है क्योंकि अपने पाठक संख्या बढ़ाने के लिए बिहार के नाम को नेस्तनाबूद करना इनकी मज़बूरी है।


फिर आयें भारत सरकार के जन संस्साधन विभाग कि तरफ। आख़िर क्या कारण है कि कोचिंग संस्थानों के ऊपर कोई प्रसार आदि को लेकर कोई प्रतिबंध नही है? अगर वे गलत प्रसार एवं प्रचार करते हैं तो उनके ऊपर क्या कोई कानून नहीं लागू होता है? पिछले वर्ष श्री अर्जुन सिंह ने समाज के पिछडे वर्ग के प्रति अपनी कर्त्व्यपरायणता दिखाते हुए आरक्षण कि नीति लागु कि थी. फिर जब सुपर ३० के प्रयोग ने दिखा दिया कि बच्चों को आरक्षण से ज्यादा दिशा दिखने एवं बराबरी के अवसर से फायदा होता है तो फिर ये विचित्र शांति कैसी? क्या आरक्षण सिर्फ वोट कि राजनीती ही थी या फिर समाज के पिछडे वर्ग के प्रति कुछ कर्तव्यबोध भी है?

इस प्रसंग ने मुझे तो हिला कर रख दिया है। क्या आज के ज़माने में नैतिकता के आधार पर नहीं जिया जा सकता है? क्या सफलता के लिए अनैतिक व्यवहार ना सही मोटी चमडी वाला होना जरूरी है? और फिर अगर हमारे समाचार पत्र एवं हमारी सरकार इस विषय में कुछ भी करने में अशक्ष्म है तो हम एक समाज एवं नागरिक के तौर पर हम इस बारे में क्या कर सकते हैं? या फिर हम इस बारे में सोचना भी नहीं चाहते हैं?

मंगलवार, 8 मई 2007

कहानी पाठ्य पुस्तकों की

आज प्रत्येक वर्ष सिलेबस बदल जता है। चाहे आप के बच्चे राज्य स्तर के बोर्ड वाले विद्यालय में पढ़ रहे हों या राष्ट्रीय स्तर के बोर्ड वाले विद्यालय में, पाठ्य क्रम बदलने की एक परम्परा सी चल पडी है। इस का एक परिणाम यह हुआ है कि पाठ्य पुस्तकें भी बदल जाती हैं। आप के दो बच्चों के उमर में अगर दो वर्षों का भी फासला हो तब भी आप को उनके लिए नयी पुस्तकें खरीदनी पड़ती हैं। आज से कुछ ही साल पहले ऐसा नहीं था। एक बार घर पर पाठ्य पुस्तक आ गयी तो पुश्त दर पुश्त परिवार पढ़ जाते थे। भाई बहन तो क्या भतीजे भतीजी भी अपने चाचा बुआ के लिए खरीदी गयी किताब पढ़ कर कितनी ही परीक्षा पास हो गए।

इनमे कुछ किताबें ऐसी थीं जिनको गीता, कुरान या बाईबल का दर्ज़ा हासिल था। इन किताबों को खरीदने के बाद सबसे पहले कूट में मढ़वाया जाता था। फिर बढ़िया भूरा जिल्द लगा कर ही पढने वालों को दिया जाता था। शायद कुछ प्रकाशकों को भी इस बात का इल्म था, क्योंकि वो किताबें मढी मढ़ई आती थीं। आज के अपने लेख में मैं ऐसी ही कुछ भूली बिसरी किताबों का जिक्र करना चाहूँगा।

ऐसी सबसे पहली पुस्तक जो किसी बच्चे के हाथ में दी जाती थी, वह थी मनोहर पोथी। एक बड़ी अच्छी परम्परा थी बिहार में खल्ली छुआने की या संस्कृतनिष्ट हिंदी में कहें तो अक्षरारम्भ की। घर का कोई बड़ा बुजुर्ग यथा दादा दादी या बडे चाचा (बिहारी भाषा में बड़का बाबूजी) स्लेट पर नन्हे नन्हे उँगलियों से चाक द्वारा कुछ अक्षर लिखवा देते और पढ़ाई शुरू हो जाती। कई बार यह कार्य सामुहिक रुप से सरस्वती पूजा के दिन भी करवा दिया जाता था। ऐसे अवसर पर मनोहर पोथी का होना बिल्कुल अनिवार्य था। ना जाने कितने लाख लोग मनोहर पोथी पढ़ कर साक्षरता प्राप्त किये!

अगली ऐसी पुस्तक जो मुझे याद है, वह थी चक्रवर्ती की अंक गणित। मेंसुरेशन के कठिन से कठिन प्रश्न आप बिना ज्यामिति के ज्ञान के इस पुस्तक के पढ़ लेने से कर सकते थे। लाल मढी ये किताब आगरा के किसी प्रकाशक द्वारा प्रकाशित होती थी। फिर बंगाल के लेखक द्वारा लिखी उत्तर प्रदेश से प्रकाशित इस पुस्तक का प्रचलन बिहार में इतना क्यों था, यह मार्केटिंग के प्राध्यापकों के लिए शोध का विषय भी हो सकता है। पता नहीं मेरे जैसे कितने बालक अपनी गरमी की छुट्टियों में इस पुस्तक के चलते खेलने से वंचित रहे। गौर करें की ये पुस्तक हमारे सिलेबस से बाहर की थी। यानी इसे कितना भी पढ़ लो, परीक्षा में कोई फरक नहीं पड़ेगा। पर हमारी नियति में उसमे दिए गए प्रश्नों को हल करना लिखा था सो किया। ये भी सच है की इस किताब ने जितना भेजा चुस्त किया, यह उसी की देन है की बिना कोई विशेष प्रयत्न या अभ्यास के मैं मैनेजमेंट की प्रवेश परीक्षा में सफल हो पाया।
अगली कुछ पुस्तकों का विवरण जो मैं देने जा रहा हूँ, वो सब गणित से जुडे हुए हैं। कक्षा छः में प्रवेश किया नहीं की हॉल ऎंड नाईट की बीज गणित एवं हॉल ऎंड स्टीवेंस की ज्यामिति कि किताब आप को थमा दी जाती थी। जहाँ तक मुझे याद आता है, इन पुस्तकों का नया संस्करण शायद सन १९३५ के बाद नहीं आया था, सिर्फ साल दर साल इन पुस्तकों का प्रकाशन होता था। ऐसा प्रतीत होता था मानो १९३५ के बाद पाठन पर शोध बंद हो गया था। शायद यही कारण तो नहीं है की अब जब फिर से शोध हो रहा है तो हर साल पुस्तकें बदल दी जा रही हैं? इसी परम्परा की एक और किताब थी लोनी की त्रिकोणमिति जो हमें कक्षा आठ में दी गयी।

अच्छी बात थी की ये पुस्तक सिलेबस के भीतर की चीज़े ही पढाती थीं। या शायद सिलेबस इन पुस्तकों को देख कर ही बनाया गया था। इस लिए इनका परीक्षा में भी बड़ा फायदा होतो था। अगर आप इनको मन से पढ़ लें तो शायद ही किसी परीक्षा में आपको परेशानी हो। कुछ कुछ चीज़े जो शिक्षक नहीं पढा पाते, वो भी अगर आप ध्यान से पढ़ लेते तो आप को समझ में आ ही जता था। हाँ कुछ कुछ शिक्षक इन किताबों को गलत ढंग से पढ़ते थे। मसलन, थेओरेम को रट्टा लगाने के लिए बोलना। अब अगर किसी भोजपुरी, मैथिलि या मगही भाषी को अंग्रेजी में थेओरेम का रट्टा लगाने पर मजबूर किया जाये तो वह ज्यामिति क्या सीखेगा? बहरहाल, किस्मत से हमारे विद्यालय में कुछ बहुत ही अच्छे गणित के शिक्षक थे जो चाव से हमें इन थेओरेम के पीछे की लाजिक सिखलाते थे। इस लिए हमलोग तो बच गए। पर शायद कुछ विद्यालय ऐसे जरूर रहे होंगे जहाँ ऐसे अच्छे शिक्षक नहीं थे। वहाँ छात्र जरूर परेशान हुए होंगे।

अब आते हैं अंग्रेजी ग्रामर की किताब पर। नेस्फिल्ड के ग्रामर कि किताब एक ऐसी किताब थी जो कई सालों से छपी तक नहीं थी। नेस्फिल्ड के ग्रामर के किताब की शोहरत उस ज़माने के किसी सिने कलाकार से कम नहीं थी. घरों में इसे जिस तरह बचा कर रखा जाता था वह देखने योग्य था। चुंकि इसका प्रकाशन बंद हो चूका था, इसलिए आपको यह किताब किसी मित्र या रिश्तेदार के घर से ही मिल सकती थी। अब अगर ये ध्यान में रखें की अंग्रेजी कर्पूरी ठाकुर साहेब के ज़माने से अनिवार्य विषय नहीं था, तो वाक़ई समाज शास्त्री इस विषय पर शोध करने की सोच सकते हैं की पास विदाउट इंग्लिश के ज़माने में इस पुस्तक ने इतनी शोहरत कैसे पाई?

वैसे तो कई किताबें और भी हैं, पर आपको इन कुछ किताबों से बीते ज़माने की भूली किताबों की कहानी याद कराने की कोशिश की है। आज के बालक नित्य पुस्तक बदल देते हैं। शायद ही कोई पुस्तक ऐसी होगी जिनको इन पुरानी किताबों की भांति शोहरत हासिल हो।

हनुमान चालीसा

जिस गंगा के मैदान में मेरा जन्म हुआ है, वहाँ तुलसी कृत रामचरितमानस एवम हनुमान चालीसा को कौन नहीं जनता। फिर क्या वजह है कि मैंने अपने ब्लोग में अंग्रेजी अनुवाद के साथ इस को प्रस्तुत किया है?
इसकी वजह है कि ये हमें जबानी याद तो अवश्य है पर कई लोगों को शायद इस का तात्पर्य नहीं मालूम है। सिर्फ आज के पढे बच्चे या एन आर आई के बच्चे ही नहीं, सत्तर या अस्सी के दशक में पढे अधेड़ बच्चे भी। मुझे खुद ही सारे चौपाइयों का तात्पर्य नहीं मालूम था। इस लिए जब किसी हितैषी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद ई मेल किया तो मैंने दोनो को मिला कर ये चिठ्ठा बनने कि सोची। इसे और सरल करुंगा, थोडा इंतज़ार करें।


श्री गुरू चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि,

बरनाओ रघुवर बिमल जसु, जो दयाक फल चारी

With the dust of the teacher's Lotus feet, I clean the mirror of my mind,
and then
narrate the sacred glory of Sri Ram Chandra, the supreme among the Raghu
dynasty., the giver of the four attainments of life.

बुद्धि हीन तनु जानिके, सुमिरो पवन कुमार,
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश बिकार

Knowing myself to be ignorant, I call you, the son of Pavan! Kindly bestow on me strength, wisdom and knowledge, removing all my miseries and blemishes.

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर
जय कपीस तिहूँ लोक उज्गार

Hail O Hanuman, Ocean of wisdom and virtue, victory to the Lord of monkeys who is well known in all the three worlds

रामदूत अतुलित बल धामा,
अन्जनी पुत्र पवनसुत नामा.

Divine messenger of Ram and repository of immeasurable strength, O Anjaniputra you are also known as the son of wind.

महाबीर बिक्रम बजरंगी,
कुमति निवार सुमति के संगी.

Oh Most Valiant, you are brave, with a body like lightening. You dispel the darkness of evil thoughts and are a companion of good sense.

कंचन बरन बिराज सुबेसा,
कानन कुंडल कुंचित केसा.

Your physique is golden hued. Your ears have beautiful rings and hair is curly.

हाथ बज्र और ध्वजा बिराजे,
कांधे मूंज जनेऊ साजे.

In one hand is a lighting bolt and in the other a banner.
With sacred thread across his shoulder.

शंकर सुवन केसरी नन्दन,
तेज प्रताप महा जग वंदन

Emanation of 'SHIVA', you delight Shri Keshri.
Being ever effulgent, you hold sway over the universe. and the entire world propitiates.

विद्यावान गुनी अति चातुर,
राम काज करिबे को आतुर
The repository learning, virtuous and very wise, you are
keen to do the work of Shri Ram.

प्रभु चरित सुनिबे को रसिया,
राम लखन सीता मन बस्यिया.

Intensely desirous to listen to Lord Ram's lifestory, you ever dwell in the hearts of Shri Ram-
Lakshman and Sita.

सुक्ष्म रुप धरी सियाही दिखावा,
बिकट रुप धरी लंक जरावा

You appeared before Sita in a diminutive form, and assumed an awesome form to set Lanka on fire.

भीम रुप धरी असुर संहार,
रामचंद्र के काज सवारे.

You took the form of the great warrior Bhim to kill the demons, and accomplished the tasks of Shri Ram.

लाये सजीवन लखन जियाये,
श्री रघुबीर हरषी उर लाये.

You obtained
'Sanjivni herb' to get Lakshman back to life, and brought immense pleasure to Shri Ram.

रघुपति किन्ही बहुत बडाई,
तुम मम प्रिया भरतहि सम भाई.
Shri Ram extolled your virtues and remarked, "you are as dear
to me as my brother Bharat"

सहस बदन तुम्हारो जस गावे,
अस कही श्रीपति कंठ लागावे.
Shri Ram embraced Hanumanji saying: "Let the thousand tongued sheshnaag sing your glories"

सनकादिक ब्रह्मादी मुनीसा,
नारद सारद सहित अहीसा
Sanak and other sages of the universe, Narad and Goddess Saraswati along with Sheshnag the cosmic serpent, fail to sing the full glories of Hanumanji

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते,
कबी कोबिद कहीं सके कहां ते

Even Gods like Yamraj, Kuber, and Digpal fail to narrate Hanuman's greatness in toto, what to talk of denizens of the earth like poets and scholars

तुम उपकार सुग्रिवाही कीन्हा,
राम मिलाये राजपद दीन्हा

You rendered a great service to Sugriva, you united him with Shri RAM and got him installed on the Royal Throne.

तुम्हारो मंत्र बिभीषण माना,
लंकेश्वर भये सब जग जान.
By heeding your advice. Vibhushan became Lord of Lanka, which is known all
over the universe.

जुग सहस्त्र जोजन पर भानु,
लील्यो ताहि मधुर फल जानू
The SUN is at a distance of sixteen thousand miles, but you gulped it down taking it to be a sweet fruit.

प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहीं,
जलधि लांघी गए अचरज नहीं.
Carrying the Lord's ring in his mouth, he went across the ocean. Is that any suprise?

दुर्गम काज जगत के जेते,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते.
All the difficult tasks in the world are rendered easy by your grace.

राम दुवारे तुम रखवारे,
होत ना आज्ञा बिन पैसारे.
You are the sentinel at the door of Ram's abode. No one may enter without your permission.

सब सुख लहें तुम्हारी सरना,
तुम रक्षक काहू को डरना.
O can enjoy all happiness by your grace . Why fear when you are the protector?

आपन तेज सम्हारो आपी,
तीनो लोक हांक ते कांपी
When you roar all the three worlds tremble and only you can control your might.

भूत पिसाच निकट नही अवेई,
महाबीर जब नाम सूनावेई.
Hanumanji's name keeps all the Ghosts, Demons & evils spirits away from his devotees.

नासे रोग हरे सब पीरा,
जपत निरंतेर हनुमंत बीरा
On reciting Hanumanji's holy name regularly all the maladies perish and the entire pain disappears.

संकट ते हनुमान छुदावेई,
मन क्रम बचन ध्यान जो लावेई.
Those who rembember Hanumanji in thought, word and deed are well guarded
against their odds in life.

सुब पर राम तपस्वी राजा,
तिनके काज सकल तुम साजा

You are the caretaker of even Lord Rama, who has been hailed as the Supreme Lord and the Monarch of all those devoted in penances.

और मनोरथ जो कोई लावे,
सोई अमित जीवन फल पावे.


Oh Hanumanji! You fulfill the desires of those who come to you and bestow the eternal nectar the highest fruit of life.

चारो जूंग परताप तुम्हारा,
है परसिद्ध जगत उजियारा.
Oh Hanumanji! You magnificent glory is acclaimed far and wide all through the four ages and your fame is radianlty noted all over the cosmos.

साधू संत के तुम रखवारे,
असुर निकंदन राम दुलारे.
You are the saviour and the guardian angel of saints and sages and destroy all the Demons, you are the seraphic darling of Shri Ram.

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,
अस बार दिन जानकी माता.
Hanumanji has been blessed with mother Janki to grant to any one any YOGIC power of eight Sidhis and Nava Nidhis as per choice.

राम रसायन तुम्हारे पासा,
सदा रहो रघुपति के दसा.
You hold the essence of devotion to RAM, always remaining His Servant.

तुम्हारे भजन रामको पावें
जनम जनम के दुःख बिस्रावेई.
Through devotion to you, one comes to RAM and becomes free from suffering of several lives.

अंत काल रघुबर पुर जाय,
जहाँ जनम हरी भक्त कहाई.
After death he enters the eternal abode of Sri Ram and remains a devotee of him, whenever, taking new birth on earth.

और देवता चित्त ना धरे,
हनुमत सई सर्व सुख करई
You need not hold any other god in mind. Hanumanji alone will give all happiness.

संकट कटे मिटे सब पीरा,
जो सुमिरेई हनुमंत बलबीरा

You end the sufferings and remove all the pain from
those who remember you.

जय जय जय हनुमान गोसाई
कृपा करहु गुरुदेव कि नाई
Hail-Hail-Hail-Lord Hanumanji! I beseech you Honour to bless me in the capacity of my supreme 'GURU' (teacher).

जो सत बार पाठ कर कोई,
छूटाही बंदी महा सुख होई.
One who recites this Hanuman Chalisa one hundred times daily for one hundred days becames free from the bondage of life and death and enjoys the highest bliss at last.

जो यह पढे हनुमान चालीसा,
होय सिद्धि सखी गौरीसा
As Lord Shankar witnesses, all those who recite Hanuman Chalisa regularly are sure to be benedicted

तुलसीदास सदा हरी चेरा,
कीजे नाथ ह्रदय मह डेरा.

Tulsidas always the servant of Lord prays. "Oh my Lord! You enshrine within my heart.!

चोपाई

पवन तनय संकट हरण, मंगल मूर्ति रुप.
राम लखन सीता सहित, ह्रदय बसहु सुर भूप.

O Shri Hanuman, The Son of Pavan, Saviour The Embodiment of
blessings, reside in my heart together with Shri Ram, Laxman and Sita

शनिवार, 5 मई 2007

यादें बचपन की

उस दिन मुझे कुछ खास काम नहीं था। मैं कुछ यूं ही इधर उधर भटक रहा था और सोच रहा था की आज करना क्या है? मैं यह सोच ही रहा था कि किसी नें कहा जरा पिछे मुड के देखो। मैंने देखा मेरा बहुत पुराना दोस्त खड़ा है। उस से मुद्दतों बाद मिल रहा था। बस फिर क्या था हम लोग तुरुंत एक होटल में जगह ले कर बैठ गए और पुरानी बातें याद करने लगे। बातों ही बातों में यादों के परत खुलते गए और हम अपने बचपन में जा पहुंचे जब जीवन में सरलता थी। जब ऐसा कुछ भी नहीं था जो हमें लगता कि हम नहीं कर पायंगे. इतना कुछ जानते भी नहीं थे।। असंभव क्या संभव का अर्थ भी भली भांति मालूम नहीं था।

गाँधी मैदान से बेहतर कोई मैदान क्या होगा? बैली रोड़ से बेहतर कोई सड़क क्या होगी? गोलघर से बेहतर और कहॉ से गंगा को देखा जा सकता है? तब ना टीवी थी ना इन्टरनेट। एक रेडियो था और उस पर भी ज़्यादातर सरकारी कार्यक्रम। बस एक कार्यक्रम विविद भारती का। बच्चों के लिए कार्यक्रम होता था रविवार को - बाल मंडली। वो वक़्त था जब लाफ्टर चैलेन्ज के जैसा कार्यक्रम था लोहा सिंह जो बड़ा ही विख्यात था। खदेरन को मदर और फाटक बाबा सबसे नामी किरदार थे। और रात को हवामहल देख कर सो जाते थे।

राष्ट्रकवि दिनकर के कविताओं कि गूंज थी। दशहरे में हार्डिंग पार्क के कार्यक्रम से बेहतर कोई संगीत का क्या कार्यक्रम होगा? जब होटल जाने का मतलब डाक बंगला चौराहे पर काफ़ी हौसे में डोसा खाना था। छुट्टी का मतलब गाँव अपने दादा दादी से मिलने जाना था। यह वो समय था जब समाचार घटनाओं को जनता तक पहुचाने का काम करते थे ना कि घटना बनाने का। सभी शाम को साढ़े सात बजे आकाशवाणी से प्रादेशिक समाचार का इंतज़ार करते थे, ना कि सारा दिन उसी समाचार को दुहराते देख परेशान होते। लोग सुबह आर्यावर्त और प्रदीप पढ़ते थेअगर अंग्रेजी अखबार चाहिऐ तो सर्च लाइट और इंडियन नेशन था

जे जी कार और डी लाल के दुकान से बेहतर दुकान क्या हो सकती थी। डाक बंगला चौराहे पर के दुकान से बेहतर सोफ्टी आइसक्रीम और कहॉ? पाटलिपुत्र कालोनी से बेहतर मकान कहॉ? अशोक सिनेमा हॉल के वातानुकुलित वातावरण का विशेष महत्त्व था। और अगर विशेष खरीदारी करनी है तो अशोक राजपथ के पटना मार्केट से बेहतर बाज़ार कहाँ? हथुआ मार्केट के खिलोने वाले से बेहतर दूकानदार कहॉ? पता नहीं दिन के कितने खिलोने बेचता था पर दिखाता बहुत चाव से था। हम भी कौन सा हर बार जाते थे तो खिलोने खरीदने को मिलते थे। हाँ देखने का मज़ा जरूर लेते थे।

हम तब बालक, नन्दन और पराग पढ़ते थे। पिताजी और माताजी धर्मयुग। सडक पर गाडियां कम और साईकिल ज्यादा थे। मौर्य होटल का मतलब गाँधी मैदान के दक्षिणी कोने वाला होटल था ना कि दिल्ली के सरदार पटेल मार्ग पर का होटल। तब हम मुज़ियम को जादूघर कहते थे। शीतल जल के लिए सुराही थी, ना कि फ्रिजहर कलायी पर घड़ी तो नहीं थी, पर काम समय पर ज्यादा होता था। "सेक्रैतिअट" का घंटा जो था! ध्वनि प्रदुषण कम था और समय तत्परता अधिक

संजय गाँधी जैविक उद्यान का नाम बोटैनिकल गार्डन था। या नहीं तो चिड़िया घर। वैसे अन्दर चिड़िया कम और पेड पौधे और जानवर ज्यादा थे। मजहरूल हक पथ को फ्रेज़र रोड़ कहते थे। जैप्रकाश तब सड़क नहीं लोकनायक थे। तब पटना "साहब" नहीं" सिटी" हुआ कर्ता था। तब पोटेटो वेफर्स नहीं टन टन भाजा बिकता था। गोल्डन का मतलब आइस क्रीम् और पोल्सन का मतलब मक्खन। तब खाना गैस पर नहीं कोइला पर बनता था। घरों पर धुँआ निकलने के लिए चिमनी होती थी जो बिना बिजली के चलती थी। गोबर का गोइंथा भी इंधन के काम आता था।

और सबसे अहम बात थी कि बिहारी गाली नहीं गौरवशाली था।