एक कहावत बिहार में काफी प्रचलित है -
अगर समुद्र मथोगे तो अमृत मिलेगा पर अगर गूह मथोगे टू खाली बदबुये पाओगे।
ये जातिवाद के ऊपर का विवाद भी किसी गूह मथने से कम नहीं है। आज़ादी के साठ साल हो गए और हम इस जातिवाद की बहस से ऊपर उठने को तैयार नहीं हैं। जब भी बिहार के सन्दर्भ में कोई बहस हो रही हो जातिवाद का मुद्दा अनायास ही उठ जाता है।
par ऐसी बहस किस काम की जो कोई बदलाव ही नहीं ला सके। क्यों नहीं आर्थिक मुद्दों पर बहस हो? यथा फृत एकुँलिज़एशन (freight equalization) जिसने बिहार की आर्थिक कमर तोड़ दी? या फिर क्रेडिट डिपॉजिट रेशियो जिसके कारण देश के सबसे गरीब राज्य बिहार से पूंजी का पलायन हो रहा है। अगंरेजों के शाषण काल में भी ऐसा नहीं हुआ !
अगर बंगाल की तरफ़ देखें तो े वहां का एक भी मुख्य मंत्री वहां की तीन अगडी जाति ब्रह्मण बैद्य और बंगाली कायस्थ के बाहर का नहीं हुआ है। पर उसे क्यों नहीं जातिवादी कहते हैं?
सोचने और समझने की बातें हैं।
शनिवार, 12 अप्रैल 2008
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