सोमवार, 4 जून 2007

एक सपने का अंत

पटना के गणितग्य श्री आनंद कुमार एवं पुलिस अफसर श्री अभयानंद ने एक सपना देखा था - गरीब तबके के बच्चों को आई आई टी कि प्रवेशिका परीक्षा में सफलता दिलाने का। बड़ी मेहनत और लगन से पिछले पांच वर्षों से उन्होने एक कोचिंग संस्थान चलाया - सुपर ३०। इस संस्थान में तीस बच्चों को आई आई टी परीक्षा में सफल होने की ट्रेनिंग दी जाती थी। ये विद्यार्थी गरीब एवं कमजोर तबके के होते थे जिनके लिए आम तौर पर आई आई टी में पढना एक सपना ही होता है। कोचिंग संस्थान के फ़ीस को तो छोड़ ही दीजिए, उनके लिए दोनो वक्त का खाना जुटाना भी मुश्किल होता है। ऐसे में तीस मेघावी बच्चों को ढूँढना, फिर उन्हें ना सिर्फ बिना फ़ीस के पढ़ाना बल्कि उनके खाने पीने का भी इंतजाम करना एक बड़ा ही नेक काम था। इसको ये दोनो मसीहा समान लोग पिछले पांच वर्षों से बखूबी निभा रहे थे। पिछले पांच वर्षों में इन्होने डेढ़ सौ बच्चों को विशेष प्रशिक्षण के लिए चुना। ये इनकी मेहनत एवं लगन का फल है की ऐसी परीक्षा जिसमे एक प्रतिशत से भी कम लोग सफल होते हैं, में इन १५० में से १२२ ने सफलता देखी। ये बडे दुःख की बात है कि कुछ कारणों से श्री कुमार एवं श्री अभयानंद ने अपने इस प्रतिष्ठान को बंद करने का निर्णय ले लिया है। हुआ कुछ यूँ की इस बार सुपर ३० के २८ विद्यार्थी आई आई टी में दाखिला लेने में सफल हुए। परंतु कुछ व्यवसाइक कोचिंग संस्थानों ने इन में से तीन लड़कों को अपना विद्यार्थी बता कर मुख्य मंत्री श्री नितीश कुमार के समक्ष पेश कर डाला। इस से इन दो लोगों को बहुत दुःख हुआ। उन्होने कहा की बहुत से लोग इन बच्चों की सफलता का श्रेय लेना चाहते हैं और लेते भी रहे हैं। परंतु जब बच्चे खुद ही यह कहें कि वे अन्यत्र पढे थे तो फिर हमारी सारी मेहनत बेकार है। आइडिलिज़्म विहीन हमारे आज के समाज में ऐसे विचार बेमानी लग सकते हैं। परंतु यदि श्री कुमार एवं श्री अभ्यानंद के नजरिये से देखें तो ये दोनो कोई पैसे लिए ये काम तो कर नहीं रहे थे। इसमे उनका कोई निजी लाभ तो था नहीं। तो फिर वो इस बेकार के झंझट में क्यों पड़ें? आज दुसरे कोचिंग संस्थान वालों ने मुख्य मंत्री से मिलने के लोभ में इन बच्चों को लुभा लिया। कल पैसे का लोभ दे कर कुछ गलत बात भी बुलवा सकते हैं। फिर अगर नैतिकता आपका संबल हैं तो किसी प्रकार का कोम्प्रोमाईज़ क्यों?

इस मामले में हमारे पत्रकारों का एवं सरकार का नज़रिया भी कुछ विचित्र है। अंग्रेजी के अखबार जिनकी बिहार के बारे में अनाप शनाप लिखने की आदत सी पड़ गयी है। वो पिछले कुछ दिनों से परेशान थे की वहाँ से कुछ निगेटिव समाचार क्यों नहीं आ रहा है, अब बडे ही खुश हैं। मिसाल के तौर पर ये पढिये। बिहार के बारे में समाचार हो तो जात पात क्यों ना लाया जाये? क्यों नहीं अफसरों की धज्जी उड़ाई जाये? क्या फरक पड़ता है यदि श्री आशीष रंजन सिन्हा का कोचिंग संस्थानों से कुछ लेना देना नहीं है? क्यों na यह कहा जाये कि श्री अभयानंद भूमिहार हैं? या फिर क्यों कहा जाये की ज़्यादातर विद्यार्थी श्री अभयानंद के जात के नहीं थे? या फिर अभ्यानंद और आनंद कुमार अलग अलग jaat के हैं। और दोनो ने एक दुसरे कि jaat देख कर साथ काम करने का फैसला नहीं किया था अपितु एक मकसद को ले कर दोनो साथ आये थे? शायद ऐसी उम्मीद इन समाचार पत्रों से बेकार ही है क्योंकि अपने पाठक संख्या बढ़ाने के लिए बिहार के नाम को नेस्तनाबूद करना इनकी मज़बूरी है।


फिर आयें भारत सरकार के जन संस्साधन विभाग कि तरफ। आख़िर क्या कारण है कि कोचिंग संस्थानों के ऊपर कोई प्रसार आदि को लेकर कोई प्रतिबंध नही है? अगर वे गलत प्रसार एवं प्रचार करते हैं तो उनके ऊपर क्या कोई कानून नहीं लागू होता है? पिछले वर्ष श्री अर्जुन सिंह ने समाज के पिछडे वर्ग के प्रति अपनी कर्त्व्यपरायणता दिखाते हुए आरक्षण कि नीति लागु कि थी. फिर जब सुपर ३० के प्रयोग ने दिखा दिया कि बच्चों को आरक्षण से ज्यादा दिशा दिखने एवं बराबरी के अवसर से फायदा होता है तो फिर ये विचित्र शांति कैसी? क्या आरक्षण सिर्फ वोट कि राजनीती ही थी या फिर समाज के पिछडे वर्ग के प्रति कुछ कर्तव्यबोध भी है?

इस प्रसंग ने मुझे तो हिला कर रख दिया है। क्या आज के ज़माने में नैतिकता के आधार पर नहीं जिया जा सकता है? क्या सफलता के लिए अनैतिक व्यवहार ना सही मोटी चमडी वाला होना जरूरी है? और फिर अगर हमारे समाचार पत्र एवं हमारी सरकार इस विषय में कुछ भी करने में अशक्ष्म है तो हम एक समाज एवं नागरिक के तौर पर हम इस बारे में क्या कर सकते हैं? या फिर हम इस बारे में सोचना भी नहीं चाहते हैं?